बीसवीं सदी में विश्व का इतिहास 

दोस्तों आज के इस Post में आप पढ़ेंगे बीसवीं सदी में विश्व का इतिहास (history of world in 20th century) पर सरल शब्दों में एक लेख हिंदी में तो चलिए प्रारम्भ करते हैं। 

world in 20th century in hindi text image

1.1 औद्योगिक क्रान्ति से साम्राज्यवाद का उदय एवं उपनिवेशों के लिए संघर्ष :-

अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप की आर्थिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए । इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप उत्पादन की तकनीक और उसके संगठन का स्वरूप बदल गया । इन परिवर्तनों ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया , जो कृषि प्रधान न होकर उद्योग प्रधान थी । इस प्रकार की औद्योगिक प्रक्रिया की जननी औद्योगिक क्रान्ति थी ।

औद्योगिक क्रान्ति का अर्थ :-

क्रान्ति का अर्थ होता है परिवर्तन या किसी पूर्व व्यवस्था के स्थान पर एक नवीन व्यवस्था का स्थापित होना । औद्योगिक क्रान्ति का अर्थ है - उद्योगों की प्राचीन परम्परागत व्यवस्था के स्थान पर वैज्ञानिक तथा तीव्र गति से उत्पादन करने वाले यंत्रों का प्रयोग कर एक नवीन व्यवस्था का स्थापित होना ।

औद्योगिक क्रान्ति का संबंध मुख्यतया उत्पादन प्रणाली से था । मनुष्य ने अपने अनुभव व ज्ञान के विकास के साथ - साथ औजारों व उत्पादन के ढंग में परिवर्तन किए । पहले औजार बहुत घटिया किस्म के थे , जिससे उत्पादन कम होता था । परन्तु नवीन यंत्रों का अविष्कार हो जाने से उत्पादन के तरीके पूर्णतया बदल गए । इन क्रान्ति या परिवर्तन ने यूरोप के आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र को पूर्णतया बदल दिया ।

औद्योगिक क्रान्ति की परिभाषा :-

" औद्योगिक क्रान्ति का अभिप्राय उन परिवर्तनों से है जिन्होंने यह संभव कर दिया है कि मनुष्य उत्पादन के प्राचीन उपायों को त्यागकर बड़े पैमाने पर विशाल कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन कर सके । "

           डेविस इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति से आर्थिक , व्यापारिक और कृषि संबंधी क्रान्ति का भी घनिष्ट संबंध है । इस प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों , विशेषतया कोयला व लोहा तथा शक्ति के विभिन्न साधनों जैसे भाप और जल तथा बिजली के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर श्रमिकों की उपलब्धि , विशालकाय यंत्रों का निर्माण, वैज्ञानिक पुस्तकों की उपलब्धि इत्यादि अनेक तत्वों का महत्व है । सीमित अर्थों में औद्योगिक क्रान्ति यांत्रिक क्रान्ति है । नये - नये यंत्रों के निर्माण से आवागमन और संदेश परिवहन के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ ।

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औद्योगिक क्रान्ति का प्रारंभ :-

" औद्योगिक क्रान्ति " शब्द का प्रयोग फ्रांस के समाजवादी नेता ब्लेनकुई ने 1837 ई . में किया । सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में 1750 से 1850 की अवधि में औद्योगिक क्रान्ति हुई , किन्तु शीघ्र ही स्पेन , फ्रांस , बेल्जियम , जर्मनी , इटली , स ्विट्जरलैण्ड , हॉलैण्ड , स्वीडन , आस्ट्रिया , रूस आदि यूरोपीय देशों तथा अमरीका एवं जापान में भी इसका प्रसार हो गया ।

औद्योगिक क्रान्ति के कारण :-


 ( 1 ) विदेशी बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति :- 

आधुनिक युग के आरंभ में यूरोप के लोगों में अमेरिका और एशिया के नये बाजारों की मांग को पूरा करने के लिए औजारों तथा उत्पादन के तरीकों में उन्नति करने की इच्छा उत्पन्न हुई ।

( 2 ) विशाल पूँजी की उपलब्धि :- 

1757 ई . में ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर बंगाल , बिहार और उड़ीसा के सूबो पर अधिकार कर लिया और इन सूबों से प्राप्त धन को अपने उद्योग की पूँजी बनाया ।

( 3 ) सस्ते मजदूरों ली प्राप्ति :-

 कृषि दासता समाप्त हो जाने के कारण उस समय इंग्लैण्ड में सस्ते मजदूर पर्याप्त संख्या में मिल जाते थे ।

( 4 ) कच्चे माल की प्राप्ति :-

ब्रिटेन को कच्चा माल अपने उपनिवेशकों से प्राप्त हो जाता था ।

( 5 ) अनुकूल परिस्थितियाँ :-

 औद्योगिक क्रान्ति के लिए ब्रिटेन में माल बेचने के लिए विदेशी बाजार और विकसित समुद्री - बेड़ा जैसी अनुकूल परिस्थितियाँ थीं ।

औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव :-

( अ ) आर्थिक जीवन पर प्रभाव 

  • मनुष्य की सुख - सुविधाओं में वृद्धि हुई । 
  • विभिन्न देशों के बीच गहरे आर्थिक संबंध कायम हुए । 

( ब ) सामाजिक जीवन पर प्रभाव 

  • नये वर्गों की उत्पत्ति और उनके बीच संघर्ष :-   औद्योगिक क्रान्ति ने सम्पूर्ण समाज को दो वर्गों में विभाजित कर दिया । मजदूर तथा पूँजीपति वर्ग- इससे वर्ग संघर्ष का जन्म हुआ ।
  • स्वतंत्र दस्तकारों तथा अन्य की बेकारी में वृद्धि :-   मशीनों से तैयार माल अच्छा और सस्ता होता था । इसलिए हाथ से काम करने वाले कारीगर , उद्योगपतियों के साथ होड़ में टिक नहीं सके । उन्हें अपना स्वतंत्र धंधा छोड़कर कारखानों में जाना पड़ा । मशीनों के प्रयोग से मनुष्य के श्रम की आवश्यकता कम हो गयी । इससे बेकारी में वृद्धि हुई ।
  • पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा :-   संयुक्त परिवार बिखर गये । कम आय के कारण । परिवार की स्त्रियों और बच्चों को भी कारखानों में काम करना पड़ा । घर में छोटे - बच्चों एवं बूढ़ों की सही देखभाल नहीं हो सकी । 
  •  नगरों का विकास :-   जिन स्थानों तथा जिलों में बहुत ज्यादा मात्रा में लोहा तथा कोयला उपलब्ध था । वे शीघ्र ही उद्योगों के केन्द्र बन गए । इससे गांवों को छोड़कर लोग बड़ी संख्या में शहरों की तरफ जाने लगे।
  •  शहरों में नैतिक पतन तथा अपराधों में वृद्धि :-   कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की दशा बहुत बुरी थी । कम वेतन 20 घण्टे काम करना , भोजन , कपड़ा , मकान की खराब व्यवस्था एवं सही उपचार व्यवस्था की कमी से मजदूरों का स्वास्थ्य घटने लगा । इससे उनका नैतिक पतन भी हुआ । 

औद्योगिक क्रान्ति से विश्व को लाभ :- 

( 1 ) औद्योगिक विकास : -

 इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति से प्रेरित होकर विश्व के अन्य देशों ने भी अपने यहाँ औद्योगिक विकास किया ।

( 2 ) नये आविष्कारों का प्रोत्साहन : -

 औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप विश्व में नये - नये अविष्कारों को प्रोत्साहन मिला ।

( 3  ) विश्व मानवों की सुख सुविधाओं में वृद्धि :- 

 औद्योगिक क्रान्ति से माल सस्ता और अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगा । इससे मनुष्य की सुख - सुविधाओं में वृद्धि हुई ।

( 4 ) विश्व के विभिन्न देशों के बीच आपसी आर्थिक संबंधों की स्थापना हुई है ।

( 5 ) परिवहन तथा संचार के साधनों का समुचित विकास :- 

 रेल , सड़क , वायु तथा जल यातायात के साधनों ने विश्व की दूरी को बहुत कम कर दिया है । तार , टेलीफोन , डाक आदि संचार के साधनों से विश्व के लोग एक दूसरे के नजदीक आए हैं ।

 ( 6 ) व्यापार तथा कृषि में क्रान्ति :- 

 औद्योगिक क्रान्ति के कारण कृषि में अच्छे बीज , खाद एवं नये कृषि उपकरणों का प्रयोग होने लगा । जिससे कृषि पैदावार में वृद्धि हुई और फसलों के व्यापार में वृद्धि हुई ।

 ( 7 ) विश्व एकता का आदर्श :-

 औद्योगिक क्रान्ति ने परिवहन और संचार के साधनों का विकास करके सम्पूर्ण संसार को एकता के सूत्र में बांध दिया है ।

साम्राज्यवाद 

 साम्राज्यवाद का अर्थ :-

 जब कोई शक्तिशाली राष्ट्र दुर्बल राष्ट्र के आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन पर नियंत्रण स्थापित कर उनका शोषण करता है तो उसे साम्राज्यवाद कहते हैं । दूसरे शब्दों में जब कोई राष्ट्र शक्ति प्रयोग कर किसी अन्य राष्ट्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है तथा उसके आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का हनन करके अपने नियंत्रण में ले लेता है एसी स्थिति में शक्तिशाली राष्ट्र की प्रकृति साम्राज्यवादी कहलाती है ।

साम्राज्यवाद की परिभाषाएँ :-

 " साम्राज्यवाद वह अवस्था है , जिसमें पूँजीवादी राज्य शक्ति के बल पर दूसरे देशों के आर्थिक जीवन पर अपना नियंत्रण स्थापित करते हैं । " - डॉ . सम्पूर्णानन्द " साम्राज्यवाद शक्ति और हिंसा के द्वारा किसी राष्ट्र के नागरिकों पर विदेशी शासन थोपना है । " -  शूमाँ

साम्राज्यवाद के विकास की अनुकूल परिस्थितियाँ :- 

औद्योगिक क्रान्ति से विश्व को लाम :- 

 ( 1 ) औद्योगिक क्रान्ति : - अब तक एशिया और अफ्रीका के देशों में औद्योगिक क्रान्ति नहीं आयी थी । यहाँ होने वाले उत्पादन का उपयोग प्राचीन ढंग से हाथा द्वारा ही होता था । अतः यहाँ पर साम्राज्यवादी देशों के लिए उपयुक्त बाजार एवं कच्चा माल उपलब्ध था ।

( 2 ) सैन्यशक्ति कमजोर :- एशिया एवं अफ्रीका के देश सैनिक दृष्टि से अत्यधिक कमजोर थे । वे यूरोपीय सैन्यशक्ति के आगे टिक नहीं सकते थे । न तो उनके पास आधुनिक हथियार होते थे और न ही संगठन की शक्ति । उन्हें प्रशिक्षण भी ऐसा नहीं दिया जाता था कि वे सक्षम सैनिक का मुकाबला कर सकें ।

( 3 ) राष्ट्रीय एकता का अभाव :-  पश्चिमी देशों की तरह एशिया और अफ्रीका के राज्य एकता के सूत्र में बंधे हुए नहीं थे । वे आपसी स्वार्थों को लेकर आपस में लड़त झगड़ते थे । वे कभी संगठित होकर बाहरी शत्रु का सामना नहीं करते थे ।

( 4 ) मध्यम वर्ग का अभाव :-   एशिया एवं अफ्रीका के देशों में प्रभावशाली मध्यम वर्ग का अभाव था । जनसाधारण राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहता था । उसे अपनी रोजीरोटी जुटाने में ही सारी शक्ति लगानी पड़ती थी ।

( 5 ) राजनीतिक अस्थिरता :-  शासक वर्ग अपनी विलासिता में डूबा रहता था । प्रजाहित के कार्यों में उनकी जरा भी रूचि न थी । जनता भी अपने शासकों के प्रति सहानुभूति नहीं रखती थी । आये दिन विद्रोह , षड़यंत्र एवं मारकाट होते रहते थे । इससे प्रशासन की जड़े कमजोर हो गयी थी ।

साम्राज्यवाद के विकास में औद्योगिक क्रान्ति की भूमिका :-

( 1 ) अधिक लाभ : -

 औद्योगिक क्रान्ति ने एक नयी पद्धति को जन्म दिया । जिसे पूँजीवादी पद्धति कहा गया । इस पद्धति से नये - नये क्षेत्रों में पूँजी लगाने की लालसा बढ़ने लगी जिससे लाभ भी अधिक मिला । व्यापारी वर्ग ने शासकों पर जोर डाला कि नये क्षेत्रों पर अधिकार जमाएं , जिससे कि वे अपनी व्यापारिक गतिविधियों का वहाँ प्रसार कर सकें ।

( 2 ) कच्चे माल के नये स्त्रोतों की आवश्यकता : -

 उद्योगपतियों को उत्पादन के लिए सस्ते एवं अच्छे माल की आवश्यकता थी अतः उन्होंने अपने - अपने देश पर दबाव डाला कि वे अन्य देशों पर अधिकार करें ।

( 3  ) तैयार माल के लिए बाजार :-

 योप में तैयार माल की खपत लगभग समाप्त हो चुकी थी । लोगों की आवश्यकता पूर्ति से कई गुना अधिक उत्पादन होने लगा । इस हेतु उन्हें नये विदेशी बाजारों की आवश्यकता थी । जहाँ वे अपना माल खपा सकें । एशिया और अफ्रीका में जहाँ एक ओर कच्चे माल के भरपूर भण्डार थे , वहीं दूसरी ओर सस्ते मजदूर भी उपलब्ध थे । यूरोप में लगी पूँजी पर केवल तीन या चार प्रतिशत लाभ होता था । परन्तु अन्य देशों में बीस प्रतिशत से भी अधिक लाभ मिल सकता था । पूँजी की सुरक्षा के लिए इन देशों पर राजनीतिक अधिकार होना आवश्यक था ।

( 4 ) यातायात और संचार साधनों का विकास :-

 साम्राज्यवाद के प्रसार में यातायात और संचार साधनों का बहुत अधिक महत्व था । साम्राज्यवादी देशों ने अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में रेल लाईन बिछाई और जल यातायात का विकास किया । इनका मुख्य उद्देश्य माल को लाने - लेजाने में सुविधा प्राप्त करना था । ऐसा सोचना बेकार होगा कि साम्राज्यवादी देश जनता की सुविधा के लिए रेलों आदि का प्रबंध करते थे ।

( 5 ) कट्टर राष्ट्रवाद :-

 19 वीं सदी में यूरोप में कट्टर राष्ट्रवाद की भावना अपने चरमसीमा पर थी । इंग्लैण्ड , जर्मनी , फ्रांस , हॉलैण्ड जैसे छोटे देशों के अधीन विशाल साम्राज्य देखकर अन्य राष्ट्रों को भी इस दौड़ में शामिल होने की इच्छा जागृत हुई । यह बात उनके राष्ट्र के गौरव और प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक थी ।

( 6 ) सभ्य बनाने का बीड़ा उठाना :-

 यूरोप की श्वेत जातियों का यह सिद्धांत था कि ईश्वर ने उन्हें श्रेष्ठ बनाया है और वे पिछड़ी हुई जाति को सभ्य बनाऐं । वे पिछड़ी जातियों को दास बनाने के लिए नहीं बल्कि सभ्य बनाने के महान दायित्व की पूर्ति के लिए जी रहे हैं ।

( 7 ) ईसाई धर्म का प्रसार :-

ईसाई मिशनरियों ने धर्म के साथ - साथ साम्राज्यवादी विचारों के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । अक्सर मिशनरीज़ अंजान स्थानों में ऐसे लोगों के बीच जाते थे , जो भोले - भाले और छलकपट से दूर होते थे । धीरे - धीरे उसके पीछे लाभ कमाने के लालची व्यापारी और सैनिक भी जाने लगे । यह लोग जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा के बहाने युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर देते थे । एशिया और अफ्रीका के लोगों को तरह - तरह का लालच देकर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित किया जाता था । ऐसा करना वे अपना राष्ट्रीय कर्तव्य समझते थे ।

उपनिवेशवाद का अर्थ :-

जब कोई शक्तिशाली देश किसी कमजोर देश पर अधिकार कर लेता है और उसका आर्थिक , सामाजिक और राजनैतिक शोषण करता है तो वह देश शक्तिशाली देश का उपनिवेश कहलाता है । स्वतंत्रता से पूर्व भारत इंग्लैण्ड का उपनिवेश था । प्रारंभ में अंग्रेजों ने भारत में आकर आर्थिक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया । बाद में उन्होंने वहाँ पर राजनीतिक सत्ता स्थापित कर ली । इसे उपनिवेश का नाम दिया गया ।

उपनिवेशवाद का अर्थ :-

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बहुत सारे राष्ट्र स्वतंत्र हुए । ये नव स्वतंत्र राष्ट्र अविकसित ये । सामाज्यवादी देशों ने अपनी औपनिवेशिक नीति में परिवर्तन करके नव स्वतंत्र राष्ट्रों के विकास के नाम पर वहाँ आर्थिक सहायता करके अपना आर्थिक प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न किया । इसी नव उपनिवेशवाद कहा जाता है ।

एशिया में साम्राज्यवादी संघर्ष :-

( 1 ) भारत पर अंग्रेजों की विजय :-

 मुगलकाल के शासक औरंगजेब की मृत्यु के बाद साम्राज्यवाद का पतन बड़ी तेजी के साथ हुआ । छोटे - छोटे राज्यों के आपसी संघर्षों के कारण भारत का राजनैतिक ढांचा डगमगाने लगा था । इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से पुर्तगाली , फ्रांसीसी , अंग्रेज और डच आए । व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने के उद्देश्य से अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में संघर्ष छिड़ गया । जिसमें अन्ततः अंग्रेजों की जीत हुई ।

1757 ई . में प्लासी बाद बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया । 1857 ई . तक लगभग पूरा भारत कम्पनी के शासन के अधीन आ गया था । 1857 के सैनिक विद्रोह के कारण ब्रिटेन की सरकार ने कम्पनी के हाथों से भारत का शासन लेकर स्वयं को भारत का शासक घोषित कर दिया । 1877 ई.में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत साम्राज्ञी की पदवी धारण की जो पहले मुगल सम्राटों की पदवी होती थी ।

( 2 ) भारत में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन : -

 अग्रेजों ने अपने उत्पादनों के लिए भारतीय बाजारों में अपना उपयुक्त - स्थान बना लिया था । यहाँ के प्राकृतिक - संसाधनों का अधिकाधिक दोहन करने के उद्देश्य से उन्होंने भारत में यातायात की व्यवस्था को विकसित किया। चाय , कॉफी और नील की खेती करने वाले बागान मालिकों को अतिरिक्त सुविधाएं देने की घोषणा की । अंग्रेज व्यापारियों को आ त - निर्यात करों से मुक्त कर दिया गया । भारत में अंग्रेजों ने जनमत पर नियंत्रण रखने के लिए उद्देश्य से प्रेस कानून बना दिया ।उन्होंने महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर भारतीयों को कभी नियुक्त नहीं किया । सार्वजनिक जीवन में भी भारतीयों से अंग्रेज अभद्र व्यवहार करते थे । उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती थी ।

( 3 ) चीन में साम्राज्यवाद का प्रसार :- 

चीन पर जापान और रूस की दृष्टि थी , क्योंकि चीन उनके समीप था । अतः उनके लिए चीन का राजनैतिक और सामरिक महत्व अधिक था । चीन के कच्चे माल के विशाल भण्डारों पर उनकी दृष्टि थी । अतः यूरोपीय देशों में चीन पर अधिकार जमाने की होड़ लगी थी । चीन में साम्राज्यवादी प्रभुत्व का प्रारंभ अफीम युद्ध से हुआ । अंग्रेज चीन से चाय रेशम आदि खरीदते थे , परन्तु उन्होंने बड़े पैमाने पर अफीम की तस्करी भी आरम्भ कर दी । यह गैर कानूनी काम अंग्रेजों के लिए अधिक लाभ का था । वहीं चीन की युवा पीढ़ी का अफीम के प्रभाव के कारण नैतिक और शारीरिक पतन होने लगा था ।

प्रथम अफीम युद्ध:-

1839 ई . में कुछ चीनी अधिकारियों ने ब्रिटेन के अफीम से लदे जहाज को पकड़ कर नष्ट कर दिया । इससे अंग्रेजों ने चीन के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । जिसमें चीनियों की हार हुई । दोनों पक्षों के बीच नानकिंग की संधि हुई जिसकी शतों के अनुसार चीन को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में ब्रिटेन को आठ करोड़ रूपए तथा हांगकांग का बन्दरगाह देना पड़ा इसके अतिरिक्त पाँच अन्य बन्दरगाहों पर ब्रिटिश व्यापारियों को व्यापार करने की छूट प्राप्त हो गयी । इस तरह से चीन में अंग्रेजी साम्राज्य की शुरूआत हो गई ।

द्वितीय अफीम युद्ध :- 

कुछ समय पश्चात फ्रांस ने एक पादरी की हत्या का बहाना बनाकर चीन के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिसे ' द्वितीय अफीम युद्ध ' कहा गया । इसमें भी चीन की पराजय हुई एवं फ्रांस ने अनेक व्यापारिक छूट प्राप्त कर ली।

चीन और जापान में संघर्ष :- 

जापान ने अपना प्रभाव जब कोरिया पर दर्शाया तो चीन ने उसका विरोध किया । अतः चीन और जापान में युद्ध छिड़ गया । युद्ध में चीन की पराजय के साथ ही जो संधि हुई उसके अनुसार चीन ने कोरिया को स्वतंत्र कर दिया । उसे 15 करोड़ डालर की राशि भी युद्ध के हर्जाने के रूप में जापान को देनी पड़ी । इस राशि को देने के लिए चीन को रूस , फ्रांस , जर्मनी , ब्रिटेन से कर्ज लेना पड़ा । बदले में चारो को चीन में अलग - अलग ' प्रभाव क्षेत्र प्राप्त हो गये । इन्हें पूरी छूट थी कि वे अपने क्षेत्र में रेले बिछाएं , खदानें खोदे या अन्य किसी भी तरीके से अपने अधीन क्षेत्र का शोषण करें ।

खुले द्वार की नीति :- 

 संयुक्त राज्य अमरीका ने ' खुले द्वार ' या ' मुझे भी ' नीति का सुझाव दिया इस नीति के अनुसार सभी देशों को चीन में किसी भी स्थान पर व्यापार करने की पूरी छूट होनी चाहिए । ब्रिटेन ने संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा सुझाई गई " खुले द्वार ' की नीति का समर्थन किया इसके पीछे उसका उद्देश्य यह था कि जापान और रूस द्वारा चीन पर अधिकार जमाने की योजना सफल न हो पाए । ये दो देश ही ऐसे थे जो चीन के आन्तरिक भागों में अपनी - अपनी सेनाऐं भेज सकते थे ।

बाक्सर विद्रोह :- 

 चीन में साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध जो विद्रोह भड़का उसे बाक्सर विद्रोह के नाम से जाना जाता है । परन्तु साम्राज्यवादी ताकतों के विरूद्ध चीन टिक न सका और उसकी पराजय हो गई । चीन को दण्ड स्वरूप आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा । वास्तव में चीन किसी एक साम्राज्यवादी देश का उपनिवेश न रहा परन्तु चीन में इन घटनाओं के प्रभाव औपनिवेशिक क्षेत्रों के समान ही बने रहे । कुछ ही दशकों में चीन एक अन्तराष्ट्रीय उपनिवेश बन गया । चीन की इस स्थिति को इतिहास कार ' चीनी खरबूजे का काटना ' कहते हैं ।

चीन में साम्राज्यवादियों की सफलता के कारण :-

  •  चीन के तात्कालिक शासक अयोग्य और कमजोर थे । 
  •  चीन के उच्च सैनिक अधिकारी विदेशियों का समर्थन करते थे । क्योंकि वे अक्सर विदेशियों से कर्ज लेते रहते थे । ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ बनी रहे । 
  • चीन में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए यूरोपीय शक्तियाँ एक दूसरे का आपस में सहयोग करती थी । 
  •  चीनी लोग अंग्रेजों को निर्मम समझते थे । क्योंकि उन्होंने अफीम के व्यापार द्वारा केवल अपना लाभ देखा। जबकि चीनियों के शारीरिक और नैतिक पतन के लिए भी उत्तरदायी वे ही थे । 

दक्षिण तथा दक्षिण - पूर्व एशिया में साम्राज्यवाद :-

 दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व एशिया में भारत नेपाल , म्यांमार ( बर्मा ) , मलाया , हिन्द द्वीप , थाईलैण्ड और फिलीपीन्स हैं । नव उपनिवेशवाद के उदय से पूर्व भी इनमें कई देश यूरोपीय शक्तियों , डचों और अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया था । यहाँ पर अंग्रेजों ने चाय और रबड़ के बागानों में अपनी पूँजी लगाई जो श्रीलंका के निर्यात का 7/8 भाग था मलाया को अंग्रेजों ने डचों से बल पूर्वक छीन लिया । इसमें मलाया प्रायद्वीप के तट पर एक ओर सिंगापुर था । मलाया और सिंगापुर की महत्वपूर्ण विजय अंग्रेजों के लिए बड़ी लाभप्रद सिद्ध हुई । मलक्का जल डमरू मध्य के मार्ग द्वारा सुदूर पूर्व से होने वाले व्यापार पर उनका पूर्ण अधिकार हो गया । इंडोनेशिया के निकटवर्ती टापू डचों के अधीन थे ।

1857 के बाद हालैण्ड ने मलुक्कास नामक द्वीप समूह पर भी अपना अधिकार जमा लिया । .दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित हिन्द चीन में फ्रांस अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ चला रहा था उस समय इंग्लैण्ड अफीम के व्यापार को लेकर चीन से उलझा हुआ था । जिसमें युद्ध छेड़ने की धमकी भी दी गई थी । अन्त में फ्रासीसियों ने अपना दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया । फ्रांस ने हिन्द चीन पर अपना अधि कार जमा लिया । लाओस कम्बोडिया और वियतनाम को एक ही फ्रांसीसी गवर्नर जनरल के नियंत्रण में रख दिया गया । बाद में फ्रांस के विरूद्ध कई बार विद्रोह भड़के परन्तु उन्हें दबा दिया गया । अन्त में 19 वीं सदी के अंतिम दशक में संयुक्त राज्य अमरीका की नींद भी खुली और वह भी दक्षिण पूर्व एशिया की दौड़ में शामिल हो गया ।

 स्पेन के शासक के विरूद्ध बैर्श में क्यूबा के लोगों के विद्रोह के पश्चात् संयुक्त राज्य अमरीका और स्पेन के मध्य संघर्ष छिड़ गया । फिलीपीनियों ने स्पेनीशासन के विरूद्ध विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया । उधर संयुक्त राज्य अमरीका ने क्यूबा और फिलीपीन्स पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । फिलीपीन्स के लोगों ने अमरीकी अधिकार को चुनौती दी और विद्रोह कर दिया । लेकिन अमरीका ने इस विद्रोह को पूरी तरह से कुचल कर अपना अधिकार बनाए रखा । संयुक्त राज्य अमरीका ने फिलीपीन्स के लिए स्पेन को दो करोड़ डालर दिए।

मध्य और पश्चिमी एशिया में साम्राज्यवाद :- 

 इंग्लैण्ड तथा रूस , मध्य एशिया में ईरान अफगानिस्तान तथा तिब्बत पर कब्जे के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगे । 1907 में इंग्लैण्ड और रूस में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दक्षिणी ईरान , ब्रिटेन और उत्तरी ईरान रूस के प्रभाव क्षेत्र बन गए । ईरान का नध्य भाग किसी एक के प्रभाव क्षेत्र में नहीं भा तथा दोनों के लिए खुला रहा । अफगानिस्तान तथा तिब्बत पर राधिकार के लिए इंग्लैण्ड और रूस का संघर्ष जारी रहा ।

 किन्तु एक समझौते के अनुसार दोनों देशों ने तिब्बत पर हस्तक्षेप न करने का वायदा किया । रूस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर मान लिया । ब्रिटेन ने यह मान लिया कि जब तक अफगानिस्तान का शासक उसके प्रति निष्ठावान रहेगा वह अफगानिस्तान का अधिग्रहण नही करेगा । 1917 की रूसी क्रान्ति के बाद सोवियत सरकार की रूचि ईरान में कम हो गई । किन्तु ईरान में तेल निकालने के कारण ब्रिटेन व अमेरिका की ' स्टैण्डर्ड आयल कम्पनी ' तथा इंग्लैण्ड की ' ऐंग्लो परशियन ऑयल कम्पनी का ईरान पर प्रभुत्व स्थापित हो गया ।

जापान का साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उभरना :- 

जापान में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति 19 वीं सदी के अंतिम दशक में जागी । अमरीकी लड़ाकू जहाजों ने 1853 ई . में कमोडोर पेटी के नेतृत्व में जापान पर इतना अधिक दबाव डाला कि उसे विवश होकर अमरीकी जहाज रानी और व्यापार की छूट देनी ही पड़ी । बाद में इसी तरह के व्यापारिक समझौते जापान ने ब्रिटेन , हालैण्ड , फ्रांस और रूस के साथ भी किया ।

जापान अन्य एशियाई देशों की तरह के कटु अनुभवों से बचा ही रहा । 1867 ई . में जापान से शोगन शासन समाप्त होने के बाद नई सरकार ने जापान की अर्थव्यवस्था को नया रूप देना आरंभ कर दिया । कुछ ही दशकों में जापान विश्व के प्रमुख औद्योगिक देशों की पंक्ति में जा खड़ा हुआ लेकिन जापान में उद्योगों के | लिए कच्चा माल पर्याप्त नहीं था । अतः - उसने उन देशों की ओर देखा जहाँ कच्चा | माल और तैयार माल के लिए उपयुक्त बाजार थे।

चीन और जापान में संघर्ष :- 

जापान की साम्राज्यवादी भूख शान्त करने के लिए चीन में उपयुक्त वातावरण था 1894 ई . में जापान ने कोरिया के प्रश्न को लेकर चीन के साथ युद्ध छेड़ दिया । 1902 में जापान और अंग्रेजों के बीच जो संधि हुई उसके अनुसार उसे भी बड़ी यूरोपीय शक्तियों के समान मान्यता मिल गई । 1904-1905 ई . में उसने रूस को हरा दिया जिसके फलस्वरूप जापान को सखालिन का दक्षिणी क्षेत्र मिल गया । अतः 1910 में जापान को कोरिया में अपना उपनिवेश स्थापित करने के अवसर मिल गये ।

जापान एक बड़ी शक्ति के रूप में :- 

 1914 ई . को जब पहला विश्व युद्ध छिड़ा तो जापान को एक बड़ी शक्ति के रूप में मान्यता मिल चुकी थी । अगर पश्चिमी साम्राज्यवादी देश उसे थोड़ी और छूट देते तो वह चीन में और अधिक अपना प्रसार कर सकता था ।

अफ्रीका में साम्राज्यवाद का प्रसार :- 

 15 वीं सदी के उत्तरार्ध में भौगोलिक खोजों के साथ अफ्रीका में एक नये अध्ययन का प्रारंभ हुआ । जिसमें व्यापारिक संबंधों के साथ दासों के व्यापार में वृद्धि हुई । 19 वीं सदी के अंतिम दशकों तक अफ्रीका के लगभग पांचवे भाग पर यूरोपीय शक्तियों का अधिकार था । लेकिन कुछ ही वर्षों के भीतर पूरा महाद्वीप विभिन्न यूरोपीय शक्तियों की साम्राज्यवादी भूख का शिकार बन कर बँट गया ।

दास व्यापार :- 

 प्रारंभ में यूरोप की रूचि अफ्रीका के तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रही । इसका मुख्य कारण दास व्यापार अर्थात वहाँ के मूल निवासियों को पकड़ कर उन्हें खरीदा बेचा जाता था । पुर्तगालियों ने लिस्बन में एक दास बाजार स्थापित कर दिया था । जहाँ पर स्त्री , पुरूष और बच्चों की बोली भेड़ - बकरियों की तरह लगायी जाती थी । अक्सर दासों के व्यापारी अफ्रीकी गांवों पर आक्रमण करके स्त्री , पुरूष जो भी हाथ लगता पकड़ कर ले जाते थे । बाद में इन्हें यूरोपीय व्यापारियों के आगे बेच दिया जाता था ।

पहले दास व्यापार मुख्यतः अरब लोग करते थे । वे यूरोपियों को बंदूकों के बदले गुलाम देते थे । बाद में कुछ अफ्रीकी कबीलों के सरदार भी दास व्यापार में आ मिले । जब अमेरिका में गुलामों की मांग बढ़ने लगी तो यूरोपियन स्वयं अफ्रीकी गांवों पर आक्रमण करके दास पकड़कर जहाजों द्वारा समुद्रपार भेजने लगे । जहाजों में दासों को ढूंस - ठूस कर भेड़ - बकरियों की तरह भरा जाता था । जिसमें से कई दम घुटने या कुचले जाने पर रास्ते में ही मर जाते थे । इंग्लैण्ड के सम्राट ने 17 वीं सदी में एक कम्पनी को दास व्यापार के लिए एक जहाज दिया । बाद में स्पेन में दास प्रथा पर अपने राज्य अधिकार और अमेरिका में अपने अधिकार क्षेत्र से चलाए जाने वाले दास व्यापार के अधिकार इंग्लैण्ड को दे दिए ।

 दास व्यापार से जो भी लाभ होता था उसमें से 25 प्रतिशत लाभ राजा को दिया जाता था । दासों के साथ बागान मालिकों का व्यवहार अमानवीय रहता था । उनसे लम्बे समय तक काम लेते थे । भगौड़े दासों को पकड़े जाने पर मालिक निर्मम यातनाएं देता था । भगौड़े दासों को मारने वालों को सरकार की ओर से इनाम दिया जाता था । इस समय दास प्रथा यूरोपीय औपनिवेशिक प्रणाली का एक अभिन्न अंग बन गयी थी ।

दास प्रथा का अंत :- 

कुछ औपनिवेशक शक्तियों ने अपने क्षेत्रों का विस्तार करने के उद्देश्य से दास प्रथा की समाप्ति का बहाना बनाया तथा अफ्रीकी सरदारों और राजाओं के विरूद्ध संघर्ष छेड़ दिया । इस बीच यूरोपीय शक्तियाँ अफ्रीका के आंतरिक क्षेत्रों में खोज कार्य करने के साथ - साथ पूरे महाद्वीप को अपने नियंत्रण में लाने में जुट गयी थी ।

अफ्रीका को जीतने की साम्राज्यवादी होड़ :- 

19 वी सदी के मध्य तक अफ्रीका का भीतरी भाग यूरोपीय शक्तियों के लिए अज्ञात था । केवल तटीय क्षेत्रों पर ही पुर्तगाली , डच , अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारियों ने अपनी - अपनी किले बंदी कर रखी थी । अफ्रीका के भीतरी भागों में अलजीरिया पर फ्रांसीसियों का तथा कालोनियों पर अंग्रेजों का अधिकार था ।

 पहले यह एक डच बस्ती थी जिसमें अंग्रेज और डच रह रहे थे । उन्हें ' बोअर ' कहा जाता था । ये कृषि संबंधी कार्य करते थे । अफ्रीका का यही एक मात्र स्थान था , जहाँ पर यूरोपियन बड़ी संख्या में रह रहे थे । लेकिन शीघ्र ही यूरोपीय शक्तियाँ अपने - अपने हितों की रक्षा के लिए अधिक से अधिक उप निवेशों को पाने की लालसा से आपस में लड़ने लगी जिसके फलस्वरूप पूरा महाद्वीप उन्होंने टुकड़ों में बांट लिया ।

पश्चिमी और मध्य अफ्रीका की विजय :- 

( 1 ) बेल्जियम के भौगोलिक खोजकर्ता हेनरी मार्टिन स्टैनले ने अपने शासक लियोपोल्ड द्वितीय के सहयोग से 1878 ई . में अंतर्राष्ट्रीय कांगो संघ की स्थापना की । जिसने अफ्रीकी देशों की सरकारों से 400 से अधिक संधियाँ की । उन्हें तरह - तरह के उपहार देकर ' कांगो संघ ' ने उनसे बड़े - बड़े भूखण्ड ले लिए । 1885 ई . में 23 लाख वर्ग किलोमीटर पर स्वतंत्र कांगो राज्य बनाकर उसका शासक लियोपोल्ड को घोषित किया गया ।

( 2 ) कांगों की जनता का शोषणः- मजदूरों से जबरदस्ती रबड़ और हाथी दांत जमा करने के लिए कहा जाता । जो लोग इंकार करते थे उनके हाथ काटकर सैनिक अपने साथ ले जाते थे । लियोपोल्ड ने लगभग दो करोड़ डालर इस काम में कमाया ।

( 3 ) संसाधनों का शोषण : - यहाँ प्राप्त होने वाले हीरे , सोने , यूरेनियम , इमारती लकड़ी और तांबे का धीरे - धीरे इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा अन्य कई देश भी दोहन करने लगे ।

दक्षिणी अफ्रीका पर साम्राज्यवादी पंजा :- 

दक्षिणी अफ्रीका स्थित केप कालोनी डचों द्वारा बसाई गयी थी । लेकिन 19 वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में वह अंग्रेजों के अधीन आ गयी । फिर बोअर डचों ने उत्तर की ओर आरेज फ्री स्टेट और ट्रांसवाल नामक दो राज्य स्थापित किए । 1850 ई . तक इन राज्यों पर बोअर डचों ने शासन किया । 1870 ई . में सेसिल रोड्स नामक एक साहसी अंग्रेज खोजकर्ता दक्षिणी अफ्रीका आया ।

 उसने दक्षिणी अफ्रीका में सोने और हीरे के व्यापार में बहुत सा धन कमाया । बाद में उसी के नाम पर अफ्रीका के एक राज्य का नाम रोडेशिया पड़ा । जो आज कल जांबिया और जिम्बाब्वे नामक दो स्वतंत्र देशों में तब्दील हो चुका है । कुछ समय के बाद दक्षिण अफ्रीका संघ की स्थापना की गयी । इसमें केप नटाल और आरेंज टीवर कॉलोनी सम्मिलित थे । इस संघ पर अल्पमत गोरों का राज था । इस क्षेत्र के निवासी बोअर , अंग्रेज और अन्य यूरोपीय देशों के लोग थे । बाद में दक्षिणी अफ्रीका को औपनिवेशिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी ।

पूर्वी अफ्रीका पर अधिकार :- 

 पूर्वी अफ्रीका में प्रारंभ में पुर्तगाल और जर्मनी के उपनिवेश ही थे । परंतु फ्रांस और ब्रिटेन भी उस पर अपनी दृष्टि गड़ाये हुए थे । एक समझौते के अनुसार मेडागास्कर फ्रांस को दे दिया गया । जर्मनी और बेटेन ने पूर्वी अफ्रीका को आपस में बांट दिया । प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जर्मनी के सभी उपनिवेश मित्र राष्ट्रों ने आपस में बांट लिये । जर्मन - पूर्वी अफ्रीका इंग्लैण्ड को सौंप दिया गया । पूर्वी अफ्रीका का नाम कीनिया रख दिया गया ।

उत्तरी अफ्रीका पर साम्राज्यवादी अधिकार :-

 सन् 1830 ई . में अफ्रीका के उत्तरी तट पर स्थित अल्जीरिया पर फ्रांस ने कब्जा कर लिया । लगभग 40 वर्षों तक वहाँ के लोग इसका विरोध करते रहे वह उपनिवेश फ्रांसीसी माल के लिए उपयुक्त मण्डी का काम करता था । ट्यूनीशिया पर फ्रांस , इंग्लैण्ड व इटली की दृष्टि गड़ी हुई थी । सन 1878 ई . की संधि के द्वारा इंग्लैण्ड ने ट्यूनीशिया को फ्रांस के लिए स्वतंत्र कर दिया । बदले में उसे साइप्रस द्वीप पर अधिकार प्राप्त हुआ । फ्रांस ने कुछ वर्षों के पश्चात ट्यूनीशिया को अपना उपनिवेश बना लिया ।

 फ्रांस और इटली मोरक्को पर अधिकार के लिए कोशिश कर रहे थे । सन 1900 ई . में फ्रांस और इटली के मध्य एक संधि हुई जिसके अनुसार त्रिपोली पर इटली और मोरक्को पर फ्रांस का आधिपत्य स्थापित हो गया । सन् 1904 ई . में हुए एक अन्य समझौते के पश्चात् मोरक्को पर फ्रांस का तथा मिश्र पर इंग्लैण्ड का आधिपत्य स्थापित हो गया । फ्रांस ने सन 1912 ई . में मोरक्को को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया ।

 प्रथम विश्व युद्ध के बाद मोरक्को में उठे विद्रोह को दबाने में फ्रांस को अनेक वर्ष लग गए । 1922 ई . में विवश होकर ब्रिटेन ने मिश्र को एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया | किन्तु ब्रिटेन ने स्वेज नहर तथा अन्य कई महत्वपूर्ण अधिकार हासिल कर लिए थे । इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध तक यूरोपीय देशों ने आबीसीनिया और लिबेरिया को छोड़कर लगभग पूरे अफ्रीका पर अपना अधिकार कर लिया था । यूरोपीय देशों के अधिकार के परिणाम स्वरूप अफ्रीका कई वर्षों तक जातिगत भेदभाव की नीति से जूझता रहा ।

साम्राज्यवाद के प्रभाव :- 

 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक तक साम्राज्यवाद ने एशिया और अफ्रीका को पूरी तरह से अपने पंजे में जकड़ लिया था । विश्व की लगभग दो तिहाई जनसंख्या पर विदेशी शासको ने अपना अधिकार कर लिया था । साम्राज्यवाद का प्रभाव लोगों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूप में पड़ा था ।

सकारात्मक प्रभाव :-

( 1 ) राष्ट्रीय एकीकरण :-

 साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों में एक ही तरह के कानून , न्याय व्यवस्था और आर्थिक नीति लागू की । साम्राज्यवादी देश पूरे उपनिवेश को एक राजनीतिक और आर्थिक इकाई मानकर शासन करते थे । जिसके फलस्वरूप उपनिवेश का जनता में एकता और राष्ट्रीयकरण की भावना उत्पन्न हुई । हमारा भारत इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।

( 2 ) यातायात और संचार के साधनों में सुधार :-

 अपने उपनिवेशों का पूरी तरह से शोषण करने के लिए साम्राज्यवादी देशों ने उपनिवेशों में यातायात एवं संचार के साधनों में सुधार किया । जिसके फलस्वरूप उपनिवेशों को नवीन यातायात और संचार के साधन प्राप्त हुए और वहाँ पर रेलवे एवं टेलीफोन जैसे साधनों का विकास हुआ ।

( 3 ) आंशिक उदारीकरण :-

 यूरोप के पूँजीपतियों तथा सरकार ने अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से उपनिवेशों में कुछ आधुनिक उद्योग लगाए ।

( 4 ) पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार :-

 औपनिवेशिक देशों में अपने व्यापार , उद्योग को चलाने के लिए बहुत अधिक संख्या में क्लर्कों एवं छोटे कर्मचारियों की आवश्यकता को देखते हुए साम्राज्यवादी देशों ने वहाँ पर पाश्चात्य ढंग की शिक्षा , भाषा एवं साहित्य का प्रचार - प्रसार किया । इसके फलस्वरूप उपनिवेशों में पश्चिमी विचारधाराओं का प्रसार हुआ । साथ ही वहाँ स्वतंत्रता , समानता तथा लोकतंत्र के प्रति प्रेम विकसित हुआ ।

( 5 ) नये प्रदेशों की खोज :-

 साम्राज्यवाद के प्रसार के कारण विश्व के अनेक नये प्रदेशों की खोज की गयी । साम्राज्यवादियों ने वहाँ पर अपने उपनिवेश बसाये । जिसमें विश्व के विभिन्न भागों में सभ्यता और संस्कृति का आदान प्रदान हुआ ।

नकारात्मक प्रभाव :- 

( 1 ) आर्थिक शोषण :-

 साम्राज्यवादी देश एशिया और अफ्रीका के देशों से सस्ते दामों में कच्चा माल उठाते और फिर तैयार माल उन्हीं देशों में ऊंचे दामों पर बेच कर भारी लाभ कमाते थे ।

( 2 ) आर्थिक पिछड़ापन :-

साम्राज्यवादी देश द्वारा अपने उपनिवेशों की कृषि , उद्योग धंधों र व्यापार के विकास में कोई रूचि नहीं ली जाती थी ।

( 3 ) निरंकुश शासन :-

साम्राज्यवादी देश अपने देश में स्वतंत्रता , समानता आदि की बात करते थे । किन्तु उपनिवेश में उनका व्यापार निरंकुश तथा दमनात्मक रहता था ।

( 4 ) युद्ध और अशांति :-

 यूरोपीय देश अपने उपनिवेशों की संख्या अधिक रखना चाहते थे । जिसके कारण वे आपस में लगातार युद्ध करने की स्थिति में रहते थे । सभी जानते थे कि अधिक उपनिवेश रखने से अधि कि मात्रा में कच्चा माल प्राप्त करने के स्त्रोत तथा माल बेचने के लिए बाजार उपलब्ध होंगे। 

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